आचार्य श्रीराम शर्मा >> सह्रदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य सह्रदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्यश्रीराम शर्मा आचार्य
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अहिंसा का नैदानिक मनोविज्ञान....
मनुष्य में देवता और असुर की, शैतान और भगवान् की सम्मिश्रित सत्ता है। दोनों में वह जिसे चाहे उसे गिरा दे, यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। विचारों के अनुसार क्रिया विनिर्मित होती है। असुरता अथवा देवत्व की बढ़ोत्तरी विचारक्षेत्र में होती है! उसी अभिर्द्धन-उत्पादन के आधार पर मनुष्य दुष्कर्मों अथवा सत्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। यह क्रियाएँ ही उसे उत्थान-पतन के सुख-दुख के गर्त में गिराती हैं।
असुरता कितनी नृशंस हो सकती है, इसके छुटपुट और व्यक्तिगत उदाहरण हमें आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। ऐसा सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर और मात्र सनक के लिए भी किया जाता रहा है। इसके उदाहरण भी कम नहीं हैं। छुटपुट लड़ाई-झगड़ों से लेकर महायुद्ध तक जितनी क्रूरताएँ जितनी भी विनाशलीलाएँ हुईं हैं, सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है।
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